मुझे समाचार चैनलों को देखने से सख्त परहेज़ है, परंतु आज मैंने एक न्यूज़ चैनल में एक खबर देखी, तो मन काफ़ी खिन्न हो गया। आप लोग खुद ये लेख पढें और सोचें कि जिस देश में इनसान की जान की कोई कीमत ही नहीं है, उस देश का उद्धार कैसे होगा।
आज न्यूज़ में एक खबर दिखाई गई कि नोएडा के सेक्टर 61 में दिन दहाड़े एक दम्पति को एक एटीएम से पैसे निकालते वक्त लूट लिया गया, और उनसे कुछ दूरी पर ही पुलिस जीप खड़ी थी। उन लापरवाह पुलिस वालों ने देख कर भी अनदेखा कर दिया उस घटना को। जब लूट कर लुटेरे चले गये, तब नाटकीय ढंग से पुलिस वहाँ आई और रिपोर्ट लिख कर चली गई। ये घटना पुलिस की लापरवाही और जनता की परेशानियों के प्रति उदासीनता को दर्शाती है। इस घटना का ध्यान जब एक सीनियर अधिकारी को दिलाया गया, तो क्या हुआ? जी हाँ , वह बहाने मारने के अलावा और कुछ नहीं कर पाए। न अपनी गलती मानी, और कहा कि जाँच होगी। जबकि उस 'जांच' की हकीकत सभी जानते हैं।
इन छोटे-मोटे गुन्डों पर काबू पाने के लिए अब किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जब जनता के कथित 'रक्षक' ही आलसी, निकम्मे और कामचोर हों, और सरकारी कर्मचारी भी उसी तरह के हों, तो किस पर भरोसा कर सकते हैं? जनता को अपनी सुरक्षा स्वयं ही करनी सीखनी होगी, क्योंकि इस तरह के सुस्त रक्षकों के भरोसे ही रहना बेकार है।
बात अगर केवल पुलिस तक ही हो तब भी ठीक है, लेकिन सरकार के 'ज़िम्मेदार' नेता भी किसी से कम नहीं हैं। उस नेता का नाम नहीं लेना चाहूंगा, बस यहीं कहना चाहूंगा कि आतंकवाद के खिलाफ़ कोई कार्यवाही करने की बजाय वह हर मुद्दे को बस बातचीत करने का कहकर टाल देते हैं। कई वीर जवान उन नक्सलियों के हमले में शहीद हो चुके हैं। सरकार अभी भी बस गांधीवादी विचारधारा में ही उलझी हुई है। वह यह शायद नहीं जानती कि इन आतंकवादियों का कोई दिल नहीं होता। वह बात करने से ज़्यादा बंदूक का इस्तेमाल करना आसान समझते हैं। साफ़ लगता है कि इस तरह के नेताओं को वोट देने से अच्छा है कि वोट ही न करो। कईं लोग कहते हैं कि "जो नेता खुद को नहीं संभाल सकते, वह देश को क्या सम्भालेंगे? और विपक्षी पार्टियों का भी यहीं काम है, एक दूसरे पर दोषारोपण करना। आशा करता हूं कि हमें फ़िर से वैसे कर्मठ नेता फ़िर से मिलें, जैसे सुभाष चंद्र बोस, शास्त्री, राजीव गांधी थे। क्या आप में से कोई ऐसा नेता या पुलिस अफ़सर है?